इलाहाबाद इन लिटरेचर सत्र के अंतर्गत देश के प्रसिद्ध रचनाकारों ने इलाहाबाद और अपनी नजरों में प्रयाग को किस रूप में देखा है, इस पर अपने विचार साझा किए।
प्रोफेसर बसंत त्रिपाठी ने चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा, “शहर मात्र एक भूगोल नहीं होता, यह रूह की रियासत होता है। जो लोग शहर को केवल एक भौगोलिक स्थान मानते हैं, वे हर दस सालों में इसे बदल देते हैं।” अपनी बात को और गहराई देते हुए, उन्होंने बटरोही द्वारा 1980 के आसपास लिखे गए एक लेख इलाहाबाद: लेखकों का ट्रेनिंग सेंटर का पाठ किया।
इस लेख में इलाहाबाद को लेखकों और कलाकारों के लिए प्रेरणा का एक प्रमुख केंद्र बताया गया है। इसके बाद, उपमान, बिंब, और रचनात्मकता के साथ सत्र को आगे बढ़ाया गया। विजय देवनारायण जी की पुत्री, सुष्मिता साही, जो एक IAS अधिकारी होने के साथ-साथ गंधर्व नाट्यमंडली से भी जुड़ी रही हैं, ने अपनी प्रस्तुति दी। साही जी ने 1958 में लिखी अपनी प्रसिद्ध कविता आज हम फिर किया है शब्द का आखेट प्रस्तुत की। उनकी कविता ने गंगा-जमुनी तहज़ीब और इलाहाबाद की सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत कर दिया।
यह सत्र न केवल इलाहाबाद के साहित्यिक महत्व को उजागर करता है, बल्कि शहर की रचनात्मक और सांस्कृतिक आत्मा का भी उत्सव मनाता है।
दूसरे दिन के सत्र में अकबर इलाहाबादी और फ़िराक गोरखपुरी की कविताओं को याद किया गया। इसी क्रम में समसुर रहमान सिद्दीकी की पुत्री, बरान फारूकी, ने मंच पर उनका कविता पाठ किया।
इसके बाद, सारा राय, जो समकालीन हिंदी लेखन की जानी-मानी हस्ती हैं और कई उपन्यासों व कहानियों की लेखिका रही हैं, ने अपनी प्रस्तुति दी। उन्होंने परिकथा पत्रिका में प्रकाशित अपनी कृति एक फर्लांग रमन रोड: अतीत को जाती एक सड़क के कुछ टुकड़े का पाठ किया। उनकी रचना ने इलाहाबाद के बदलते समय और यादों को खूबसूरती से उकेरा।
प्रोफेसर नीलम शरण गौर ने प्रयागराज की गलियों को अपनी कविताओं के माध्यम से दर्शकों के सामने जीवंत कर दिया। उनकी कविताओं ने इलाहाबाद की साहित्यिक धरोहर और उसके गहरे भावनात्मक पहलुओं को सामने रखा। दर्शकों ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सभी प्रस्तुतियों का जोरदार स्वागत किया।
यह सत्र इलाहाबाद की समृद्ध साहित्यिक परंपरा और समकालीन लेखन में इसके योगदान को उजागर करने का सजीव प्रयास था।