ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश की सियासत में इस बार नए तुरुप का पत्ता हैं. वो हैदराबाद के चार मिनार के दायरे से बाहर निकल कर उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी जड़े मजबूत करने की कवायद में जुटे हैं. हालांकि, अवध के पुलाव के आगे हैदराबाद की बिरयानी हमेशा कमजोर पड़ी है. उसके तीखापन, मसाले और कच्चेपन को कभी भी अवध के लोगों ने पसंद नहीं किया. यूपी की सियासत भी कुछ ऐसी है, जहां अच्छे-अच्छे मठाधीश भी आकर गच्चा खा जाते हैं.
असदुद्दीन ओवैसी हैदराबादी स्टाइल में यूपी में राजनीतिक बाजी आजमाने की जुगत में है, लेकिन यहां के सियासी दांव पेच में इस तरह से उलझ गए हैं कि न तो उनसे निगलते बन रहा है और न ही उगलते. ओवैसी जिनके दम पर यूपी में जीत का स्वाद चखना चाहते थे उन्होंने ही उनके दांत खट्टे कर दिए हैं. हम बात भारतीय सुहेलदेव पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर की कर रहे हैं, जिनके साथ मिलाकर ओवैसी यूपी में बड़ा सियासी उल्टफेर का सपना देख रहे थे. वही, राजभर अब ओवैसी का साथ छोड़कर अखिलेश यादव के साथ हाथ मिला लिया है.
यूपी में राजभर ने ओवैसी का छोड़ा साथ
दरअसल, यूपी की राजनीतिक नजाकत को समझते हुए असदुद्दीन ओवैसी ने बिहार में मुस्लिम बहुल पांच विधानसभा सीटें जीतने के बाद उसी तर्ज पर यूपी में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओमप्रकाश राजभर के अगुवाई में छोटे-छोटे दलों से साथ मिलकर भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया था. इस मोर्चे के तहत सूबे में घूम-घूमकर मुस्लिमों के बीच माहौल बनाने में जुटे थे.
ओवैसी ने यूपी की सियासी नब्ज को समझते हुए कि केंद्र में मोदी और सूबे में योगी सरकार के चलते मुस्लिम समाज मायूस हैं और तथाकथित सेकुलर दल भी चुप्प हैं. ऐसे में मुस्लिम भरोसेमंद विकल्पों की तलाश में हैं इसलिए असदुद्दीन ओवैसी ने बिहार चुनाव के बाद अपना पूरा ध्यान विशेष रूप से यूपी पर केंद्रित किया हुआ है. देश और प्रदेश में बीजेपी सरकार बनने के बाद जिस तरह से मुसलमान निशाने पर रहे है और सपा-बसपा जैसे दलों की खामोशी ने ओवैसी को सकारात्मक माहौल की उम्मीद नजर रही थी.
ओवैसी को यूपी में दिख रहा उम्मीद
यूपी में एआईएमआईएएम को अपना सुनहरा भविष्य दिख रहा है. इसलिए असदुद्दीन ओवैसी मौजूदा समय में सूबे के सभी मामलों पर खासकर मुसलमानों से जुड़े मामलों पर अपनी बात बेबाकी से रख रहे हैं. ओवैसी मुस्लिम समुदाय को लुभाने के लिए सिर्फ योगी-मोदी सरकार और बीजेपी पर ही निशाना नहीं साध रहे हैं बल्कि मुस्लिम के मुद्दों पर गैर-बीजेपी दलों के रवैए को लेकर भी सवाल खड़े रहे हैं.
मुस्लिमों के युवाओं की गिरफ्तारी से लेकर धर्मांतरण मामले में आरोपी मौलाना कलीम सिद्दीकी को लेकर असदुद्दीन ओवैसी मुखर हैं और कहते हैं कि सपा, बसपा, कांग्रेस क्यों नहीं बोलती हैं? सपा के हार्डकोर वोट माने जाने वाले यादव समुदाय के वफादारी पर सवाल खड़े करते हुए ओवैसी ने साफ तौर पर कहा कि 2017 और 2019 के चुनाव में यह साबित हो चुका है कि यादव वोटर अब सपा के साथ नहीं रहा बल्कि वो अब बीजेपी के साथ है.
इस तरह ओवैसी सपा के प्रति मुसलमानों में अविश्वास पैदा करने का दांव चल रहे हैं, लेकिन अखिलेश यादव ने ऐसा सियासी दांव चला कि वो चारो खाने चित हो गए हैं. ओवैसी जिन नेताओं के सहारे यूपी में जीत का सपना संजोय रखा था और सपा पर दबाव बनाने में जुटे थे. इसी कड़ी में ओवैसी, राजभर और भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के प्रमुख शिवपाल यादव से मुलाकात की थी. तीनों नेताओं ने शिवपाल यादव को सपा से गठबंधन करने की अगुवाई का जिम्मा सौंपा था.
राजभर ने क्यो छोड़ा ओवैसी का साथ
सूत्रों की मानें तो शिवपाल यादव ने तीनों नेताओं को मौजूदगी में सपा प्रमुख अखिलेश यादव को फोन किया और गठबंधन के लिए संदेश दिया. इस पर अखिलेश ने उन्हें सोचकर बताने का वक्त लिया. इस दौरान असदुद्दीन ओवैसी भी खुलकर कांग्रेस छोड़कर किसी भी दल के साथ गठबंधन की बात सार्वजनिक रूप से करने लगे. ऐसे में सपा प्रमुख ने राजभर से सीधे संपर्क किया और उन्हें इस बात पर राजी किया कि ओवैसी और चंद्रशेखर को छोड़कर बाकी भागीदारी संकल्प मोर्चा के सभी के साथ हाथ मिलाने के लिए तैयार हैं.
वहीं दूसरी तरफ देखा जाए तो ओमप्रकाश राजभर को साईकिल भानी लगी है, क्योंकि ओवैसी की यारी से उन्हें यहां कुछ खास हासिल होता नहीं दिखा. ऐसे में उन्होंने भागीदारी मोर्चा के संकल्प लेने से पहले ही अपने यात्रा का मार्ग बदलने की कोशिश में मजबूत दांव खेल दिया है और ओवैसी को मझधार में छोड़कर सपा के साथ जाने का फैसला कर लिया. ऐसे में ओवैसी को बंगाल के बाद यूपी में भी सियासी झटका लगा है.
यूपी की सियासत में फिट नहीं ओवैसी
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि उत्तर प्रदेश का चुनाव दो ध्रुवी होता नजर आ रहा है. बीजेपी और सपा की सीधी लड़ाई के बनते समीकरण में छोटे दल भी अपने-अपने सियासी वजूद को बचाने में जुट गए हैं. ऐसे में कुछ छोटे दल बीजेपी के साथ जुड़ रहे तो कुछ सपा के साथ हाथ मिला रहे हैं. बीजेपी और सपा के सीधी लड़ाई में मुस्लिम वोटर भी पूरी तरह से सपा के साथ जाने का मन बना लिया है. ऐसे में ओवैसी के लिए सूबे में कोई जगह बचती नहीं है, क्योंकि न तो उनका अपना कोई जनाधार है और न ही मजबूत संगठन. हैदराबाद और यूपी की सियासत में काफी फर्क है. हैदराबादी स्टाइल के तर्ज पर यूपी में सियासी जमीन उपजाऊ बनाना ओवैसी के लिए आसान नहीं है.
चार मीनार वाला माइंडसेट है ओवैसी का
वहीं, यूपी की मुस्लिम सियासत पर नजर रखने वाले सैय्यद कासिम कहते हैं कि यूपी की मौजूदा राजनीति में ओवैसी के आने से धुर्वीकरण की राजनीति को बढ़ावा मिलेगा. इससे मुसलमानों को फायदा कम और नुकसान ज्यादा होगा. इस बात को मुस्लिम बेहतर तरीके से समझ रही हैं. ओवैसी की राजनीति की उत्पत्ति और आधार चार मीनार इलाके के माइंडसेट की तरह है, जो यूपी की राजनीति में फिट नहीं बैठ पा रहे हैं और न ही यहां के सियासी मिजाज को खुद को ढाल पाए हैं.
वह कहते हैं कि यूपी में 2022 के चुनाव को लेकर जो सियासी माहौल बन रहे हैं, उसके चलते तमाम मुस्लिम नेता बसपा और कांग्रेस जैसे दल को छोड़कर असदुद्दीन ओवैसी के साथ जाने के बजाय अखिलेश यादव के साथ जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि सपा ही बीजेपी को टक्कर दे सकती है. अखिलेश यादव भी इस बात को समझ रहे हैं कि मुस्लिमों की सपा को वोट देना सियासी मजबूरी है. इसीलिए वो राजभर से तो गठबंधन कर रहे हैं, लेकिन ओवैसी के साथ हाथ नहीं मिलाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें जगह देकर भविष्य में अपने लिए मुश्किलें नहीं खड़ा करना चाहते. ओवैसी को यूपी की सियासत में जगह बनाने के लिए हैदराबाद के चार मिनार वाली राजनीति के बजाय यूपी की सियासी मिजाज को समझते हुए करना होगा. (भाषा इनपुट से)